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खुलती है चाँदनी जहाँ वो कोई बाम और है - डी. राज कँवल कविता - Darsaal

खुलती है चाँदनी जहाँ वो कोई बाम और है

खुलती है चाँदनी जहाँ वो कोई बाम और है

दिल को जहाँ सुकूँ मिले वो तो मक़ाम और है

कहती है रूह जिस्म से शायद तुझे ख़बर नहीं

मेरा मक़ाम तू नहीं मेरा मक़ाम और है

सहमी हुई ये ख़ामुशी होंटों की तेरे कपकपी

कहती है साफ़ नामा-बर कुछ तो पयाम और है

शिकवा-ए-बे-रुख़ी पे वो कहने लगे कि देखिए

नज़रों की बात और है दिल का सलाम और है

पीते रहे हैं उम्र-भर लेकिन वही है तिश्नगी

जिस का नशा है जावेदाँ वो कोई जाम और है

वक़्त-ए-गुनाह देर तक कहता है मुझ से दिल मिरा

कार-ए-हयात-ए-इश्क़ में तेरा तो काम और है

हर शय पे इस जहान की पर्दा है इक फ़रेब का

कहते हैं सब 'कँवल' मुझे गो मेरा नाम और है

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