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दुनिया पत्थर फेंक रही है झुँझला कर फ़र्ज़ानों पर - डी. राज कँवल कविता - Darsaal

दुनिया पत्थर फेंक रही है झुँझला कर फ़र्ज़ानों पर

दुनिया पत्थर फेंक रही है झुँझला कर फ़र्ज़ानों पर

अब वो क्या इल्ज़ाम धरेगी हम जैसे दीवानों पर

दिल की कलियाँ अफ़्सुर्दा सी हर चेहरा मायूस मगर

बाग़ महकते देख रहा हूँ घाटों पर शमशानों पर

पत्थर दिल हैं लोग यहाँ के ये पत्थर क्या पिघलेंगे

किस ने बारिश होते देखी तपते रेगिस्तानों पर

जिन की एक नज़र के बदले हम ने दुनिया ठुकरा दी

नाम हमारा सुन कर रक्खें हाथ वो अपने कानों पर

आहें आँसू पेश किए तो घबरा के मुँह फेर लिया

उन को शायद ग़ुस्सा आया मेरे इन नज़रानों पर

क्या तक़दीर का शिकवा यारो अपनी अपनी क़िस्मत है

अपना हाथ गया है अक्सर टूटे से पैमानों पर

आज 'कँवल' हम कुछ भी कह लें बात मगर ये सच्ची है

आज का इक इक पल भारी है पिछले कई ज़बानों पर

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