Couplets Poetry (page 273)
जिस कू मैं हो गुज़ार-ए-परी-तलअतान-हिन्द
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जिस को कहते हैं अरसा-ए-हस्ती
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जिस हुस्न के जल्वे हैं आरिफ़ की निगाहों में
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जिस बयाबान-ए-ख़तरनाक में अपना है गुज़र
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जी में है इतने बोसे लीजे कि आज
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जी में आती है करूँ उन को मैं इक दिन सीधा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जी जिस को चाहता था उसी से मिला दिया
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
झुर्रियाँ क्यूँ न पड़ें उम्र-ए-फ़ुज़ूँ में मुँह पर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जंगल में टेसू फूला और बाग़ में शगूफ़ा
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जमुना में कल नहा कर जब उस ने बाल बाँधे
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जम्अ रखते नहीं, नहीं मालूम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जागा है रात प्यारे तू किस के घर जो तेरी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जाड़ों में है ये रंग कि अपने लिहाफ़ के
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब तक कि तिरी गालियाँ खाने के नहीं हम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब से मअ'नी-बंदी का चर्चा हुआ ऐ 'मुसहफ़ी'
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब मैं ने कहा आँखें छुपा खोल दिया मुँह
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब इस में ख़ूँ रहा न तो ये दिल का आबला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब दिल का जहाज़ अपना तबाही में पड़े है
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जब चाहे तू जला दे मिरे मुश्त-ए-उस्तुख़्वाँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जानते आप से जुदा तुझ को
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जानिब-ए-कअबा तू क्यूँ ले गया बुत-ख़ाने से
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जाँ-बर हो किस तरह तप-ए-सौदा से 'मुसहफ़ी'
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जान को जैसे निकाले है कोई क़ालिब से
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जान जानी है मिरी ऐ बुत-ए-कम-सिन तुझ पर
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
जा जो इक दिन मिल गई पहलू में शोख़ी देखियो
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इतनी तो मुझ को सैर-ए-चमन की हवस न थी
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इतने महकूम-ए-बुताँ हैं जो ये काफ़िर चाहें
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इतना जो हम से रहते हो बेगाना मेरी जान
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
इतना गया हूँ दूर मैं ख़ुद से कि दम-ब-दम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी