महाऋषि-स्वामी-दयानंद
ओम का झंडा फ़ज़ाओं में उड़ाता आया
उसे तहज़ीब का सरताज बनाता आया
जिस से हर क़ौम की तक़दीर बना करती है
हमें अख़्लाक़ का वो दर्स सिखाता आया
आत्मा साफ़ हुआ करती है जिन जज़्बों से
मशअ'ल-ए-राह उन्ही जज़्बों को बनाता आया
हम दयानंद को कहते हैं पयम्बर लेकिन
ख़ुद को वो क़ौम का सेवक ही बताता आया
आर्य-वर्त का रौशन-तरीं मीनार था वो
रौशनी सारे ज़माने को दिखाता आया
क़ौम को शुद्धि की ता'लीम का उनवाँ दे कर
क़ौम को ग़ैर के पंजे से छुड़ाता आया
भाई-चारे से मोहब्बत से रवादारी से
क़ौम को जीने का अंदाज़ सिखाता आया
अपनी तहज़ीब जिसे लोग भुला बैठे थे
वेद-मंतर से वही याद दिलाता आया
शास्त्र और वेद के मंतर का उचारन कर के
अहद-ए-माज़ी का इक आईना दिखाता आया
घोर अंधकार था अज्ञान का जारी हर-सू
ज्ञान अज्ञान के अंतर को मिटाता आया
कुफ्र-ओ-बातिल के उड़े हाथों के तोते ऐ 'चर्ख़'
हक़-परस्ती का वो यूँ डंका बजाता आया
(1978) Peoples Rate This