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मचलेंगे उन के आने पे जज़्बात सैंकड़ों - चरख़ चिन्योटी कविता - Darsaal

मचलेंगे उन के आने पे जज़्बात सैंकड़ों

मचलेंगे उन के आने पे जज़्बात सैंकड़ों

हंस बोलने की होंगी हिकायात सैंकड़ों

मय्यत उठाने कोई भी आया न बा'द-ए-मर्ग

सुनते थे ज़िंदगी में मिरी बात सैंकड़ों

तुम थे तो ज़िंदगी का न कोई सवाल था

अब जन्म ले रहे हैं सवालात सैंकड़ों

क्यूँ उस निगाह-ए-मस्त की सब माँगते हैं ख़ैर

आबाद और भी हैं ख़राबात सैंकड़ों

चमके जो तेरे नूर से दिन-रात थे वही

आने को यूँ तो आए हैं दिन-रात सैंकड़ों

पर्दा-नवाज़ हुस्न के क़ुर्बान जाइए

इक इक हिजाब में हैं हिजाबात सैंकड़ों

वो बात कोई भी न कहेगा जो हम कहें

तुम जो कहो कहेंगे वही बात सैंकड़ों

करते हैं अर्ज़-ए-वस्ल पे हाँ-हूँ अजी नहीं

या'नी सवाल इक है जवाबात सैंकड़ों

बनते हैं ज़िंदगी के फ़साने उन्हीं से 'चर्ख़'

वो हैं तो ज़िंदगी की रिवायात सैंकड़ों

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