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हुस्न के जल्वे लुटाए तिरी रा'नाई ने - चरख़ चिन्योटी कविता - Darsaal

हुस्न के जल्वे लुटाए तिरी रा'नाई ने

हुस्न के जल्वे लुटाए तिरी रा'नाई ने

राज़ सब खोल दिए एक ही अंगड़ाई ने

रंग भर कर तिरी तस्वीर में जज़्ब-ए-ग़म का

अपनी तस्वीर बना दी तिरे सौदाई ने

वस्ल-ए-महबूब की तदबीर सुझाई मुझ को

हक़-परस्ती ने अक़ीदत ने जबीं-साई ने

हम ने सोचा था कि बुझ जाएँगे ग़म के शो'ले

आ के कुछ और हवा दी उन्हें पुर्वाई ने

शोरिश-ए-दहर ने बेगाना किया ख़ुद से मुझे

आगही बख़्शी मुझे गोशा-ए-तन्हाई ने

एक मा'सूम से चेहरे पे रऊनत की नुमूद

हाए क्या ज़ुल्म किया आलम-ए-बरनाई ने

गर्दिश-ए-वक़्त ने मयख़ाने में दम तोड़ दिया

जाने क्या चीज़ पिला दी तिरे सहबाई ने

रुख़ तमाशे का बदल डाला अचानक आ कर

एक ख़ुश-चेहरा ख़ुश-अंदाज़ तमाशाई ने

चर्ख़ आपस के तअ'ल्लुक़ का ये अंदाज़ भी देख

कर दिया उन को भी रुस्वा मिरी रुस्वाई ने

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