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बात कहने के लिए बात बनाई न गई - चरख़ चिन्योटी कविता - Darsaal

बात कहने के लिए बात बनाई न गई

बात कहने के लिए बात बनाई न गई

हम से बारात फ़रेबों की सजाई न गई

आज भी दार के तख़्ता से सदा आती है

हक़ की आवाज़ सितमगर से दबाई न गई

दोस्त करते हैं हसद इस लिए तेरी तस्वीर

मा-सिवा दिल के कहीं और सजाई न गई

ग़म की तस्वीर बनाने को मैं जब भी बैठा

उन की मुस्कान उभर आई बनाई न गई

नई तहज़ीब के ख़ाकों को सँवारा हम ने

हम से अख़्लाक़ की तस्वीर बनाई न गई

जाने क्या सूझी मिरी क़ब्र पर आ कर उन से

गुल चढ़ाए न गए शम्अ' जलाई न गई

मैं तो बात आई-गई कर के चला आया था

हो गई बात पराई वो दबाई न गई

उस ने हंगामों से बहलाई है अपनी दुनिया

वक़्त से अमन की शहनाई बजाई न गई

'चर्ख़' देखे जो जवानी के उभरते जल्वे

ज़िंदगी अपनी गुनाहों से बचाई न गई

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