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ले उड़ा रंग फ़लक जल्वा-ए-रा'नाई का - चंद्रभान कैफ़ी देहल्वी कविता - Darsaal

ले उड़ा रंग फ़लक जल्वा-ए-रा'नाई का

ले उड़ा रंग फ़लक जल्वा-ए-रा'नाई का

अक्स है क़ौस-ए-क़ुज़ह में तिरी अंगड़ाई का

इस क़दर नाज़ है क्यूँ आप को यकताई पर

दूसरा नाम है ये भी मिरी तन्हाई का

अजब अंदाज़ से कुछ मोहर-ए-ख़मोशी टूटी

वस्फ़ पैदा हुआ तस्वीर में गोयाई का

खुल रहा है तिरी रहमत की बदौलत वर्ना

कौन था देखने वाला गुल-ए-सहराई का

हो गई मेरे गुनाहों की सियाही मक़्बूल

संग-ए-असवद पे चढ़ा रंग जबीं-साई का

सूरत-ए-यास से आईना-ए-हैरत हो कर

देखते रह गए चेहरा वो तमन्नाई का

बे-ख़ुदी देख के मेरी सर-ए-महफ़िल पूछा

नाम मशहूर है 'कैफ़ी' इसी सहबाई का

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