लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न
बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे
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हुब्ब-ए-क़ौमी
कभी था नाज़ ज़माने को अपने हिन्द पे भी
चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के
हमारा वतन दिल से प्यारा वतन
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा
है मिरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़ कर
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना