इक सिलसिला हवस का है इंसाँ की ज़िंदगी
इस एक मुश्त-ए-ख़ाक को ग़म दो-जहाँ के हैं
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जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें
मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं
ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें
अज़ीज़ान-ए-वतन को ग़ुंचा ओ बर्ग ओ समर जाना
दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे
हम सोचते हैं रात में तारों को देख कर
इस को ना-क़दरी-ए-आलम का सिला कहते हैं
ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में