एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे
साक़िया जाते हैं महफ़िल तिरी आबाद रहे
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ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है
आसिफ़ुद्दौला का इमामबाड़ा लखनऊ
ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं
ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब
गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़
किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने
हुब्ब-ए-क़ौमी
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना
हमारा वतन दिल से प्यारा वतन
इस को ना-क़दरी-ए-आलम का सिला कहते हैं
मिरी बे-ख़ुदी है वो बे-ख़ुदी कहीं ख़ुदी का वहम-ओ-गुमाँ नहीं
कुछ ऐसा पास-ए-ग़ैरत उठ गया इस अहद-ए-पुर-फ़न में