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ख़ाक-ए-हिंद - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

ख़ाक-ए-हिंद

ऐ ख़ाक-ए-हिंद तेरी अज़्मत में क्या गुमाँ है

दरिया-ए-फ़ैज़-ए-क़ुदरत तेरे लिए रवाँ है

तेरे जबीं से नूर-ए-हुस्न-ए-अज़ल अयाँ है

अल्लाह-रे ज़ेब-ओ-ज़ीनत क्या औज-ए-इज़्ज़-ओ-शाँ है

हर सुब्ह है ये ख़िदमत ख़ुर्शीद-ए-पुर-ज़िया की

किरनों से गूँधता है चोटी हिमालिया की

इस ख़ाक-ए-दिल-नशीं से चश्मे हुए वो जारी

चीन ओ अरब में जिन से होती थी आबियारी

सारे जहाँ पे जब था वहशत का अब्र तारी

चश्म-ओ-चराग़-ए-आलम थी सर-ज़मीं हमारी

शम-ए-अदब न थी जब यूनाँ की अंजुमन में

ताबाँ था महर-ए-दानिश इस वादी-ए-कुहन में

'गौतम' ने आबरू दी इस माबद-ए-कुहन को

'सरमद' ने इस ज़मीं पर सदक़े किया वतन को

'अकबर' ने जाम-ए-उल्फ़त बख़्शा इस अंजुमन को

सींचा लहू से अपने 'राणा' ने इस चमन को

सब सूरबीर अपने इस ख़ाक में निहाँ हैं

टूटे हुए खंडर हैं या उन की हड्डियाँ हैं

दीवार-ओ-दर से अब तक उन का असर अयाँ है

अपनी रगों में अब तक उन का लहू रवाँ है

अब तक असर में डूबी नाक़ूस की फ़ुग़ाँ है

फ़िरदौस-ए-गोश अब तक कैफ़िय्यत-ए-अज़ाँ है

कश्मीर से अयाँ है जन्नत का रंग अब तक

शौकत से बह रहा है दरिया-ए-गंग अब तक

अगली सी ताज़गी है फूलों में और फलों में

करते हैं रक़्स अब तक ताऊस जंगलों में

अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में

पस्ती सी आ गई है पर दिल के हौसलों में

गुल शम-ए-अंजुमन है गो अंजुमन वही है

हुब्ब-ए-वतन वही है ख़ाक-ए-वतन वही है

बरसों से हो रहा है बरहम समाँ हमारा

दुनिया से मिट रहा है नाम-ओ-निशाँ हमारा

कुछ कम नहीं अजल से ख़्वाब-ए-गिराँ हमारा

इक लाश-ए-बे-कफ़न है हिन्दोस्तान हमारा

इल्म-ओ-कमाल ओ ईमाँ बर्बाद हो रहे हैं

ऐश-ओ-तरब के बंदे ग़फ़लत में सो रहे हैं

ऐ सूर-ए-हुब्ब-ए-क़ौमी इस ख़्वाब से जगा दे

भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे

मुर्दा तबीअतों की अफ़्सुर्दगी मिटा दे

उठते हुए शरारे इस राख से दिखा दे

हुब्ब-ए-वतन समाए आँखों में नूर हो कर

सर में ख़ुमार हो कर दिल में सुरूर हो कर

शैदा-ए-बोस्ताँ को सर्व-ओ-समन मुबारक

रंगीं तबीअतों को रंग-ए-सुख़न मुबारक

बुलबुल को गुल मुबारक गुल को चमन मुबारक

हम बे-कसों को अपना प्यारा वतन मुबारक

ग़ुंचे हमारे दिल के इस बाग़ में खिलेंगे

इस ख़ाक से उठे हैं इस ख़ाक में मिलेंगे

है जू-ए-शीर हम को नूर-ए-सहर वतन का

आँखों की रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का

है रश्क-ए-महर ज़र्रा इस मंज़िल-ए-कुहन का

तुलता है बर्ग-ए-गुल से काँटा भी इस चमन का

गर्द-ओ-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को

मर कर भी चाहते हैं ख़ाक-ए-वतन कफ़न को

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