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हुब्ब-ए-क़ौमी - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

हुब्ब-ए-क़ौमी

हुब्ब-ए-क़ौमी का ज़बाँ पर इन दिनों अफ़्साना है

बादा-ए-उल्फ़त से पुर दिल का मिरे पैमाना है

जिस जगह देखो मोहब्बत का वहाँ अफ़्साना है

इश्क़ में अपने वतन के हर बशर दीवाना है

जब कि ये आग़ाज़ है अंजाम का क्या पूछना

बादा-ए-उल्फ़त का ये तो पहला ही पैमाना है

है जो रौशन बज़्म में क़ौमी तरक़्क़ी का चराग़

दिल फ़िदा हर इक का उस पर सूरत-ए-परवाना है

मुझ से इस हमदर्दी-ओ-उल्फ़त का क्या होवे बयाँ

जो है वो क़ौमी तरक़्क़ी के लिए दीवाना है

लुत्फ़ यकताई में जो है वो दुई में है कहाँ

बर-ख़िलाफ़ इस के जो हो समझो कि वो दीवाना है

नख़्ल-ए-उल्फ़त जिन की कोशिश से उगा है क़ौम में

क़ाबिल-ए-तारीफ़ उन की हिम्मत-ए-मर्दाना है

है गुल-ए-मक़्सूद से पुर गुलशन-ए-कश्मीर आज

दुश्मनी ना-इत्तिफ़ाक़ी सब्ज़ा-ए-बेगाना है

दुर-फ़िशाँ है हर ज़बाँ हुब्ब-ए-वतन के वस्फ़ में

जोश-ज़न हर सम्त बहर-ए-हिम्मत-ए-मर्दाना है

ये मोहब्बत की फ़ज़ा क़ाएम हुई है आप से

आप का लाज़िम तह-ए-दिल से हमें शुक्राना है

हर बशर को है भरोसा आप की इमदाद पर

आप की हमदर्दियों का दूर दूर अफ़्साना है

जम्अ हैं क़ौमी तरक़्क़ी के लिए अर्बाब-ए-क़ौम

रश्क-ए-फ़िरदौस उन के क़दमों से ये शादी-ख़ाना है

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