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ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें

ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें

मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते

ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं

शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते

ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में

कोई सताए हमें हम सता नहीं सकते

कशिश वफ़ा की उन्हें खींच लाई आख़िर-कार

ये था रक़ीब को दा'वा वो आ नहीं सकते

जो तू कहे तो शिकायत का ज़िक्र कम कर दें

मगर यक़ीं तिरे वा'दों पे ला नहीं सकते

चराग़ क़ौम का रौशन है अर्श पर दिल के

उसे हवा के फ़रिश्ते बुझा नहीं सकते

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