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न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा

न कोई दोस्त दुश्मन हो शरीक-ए-दर्द-ओ-ग़म मेरा

सलामत मेरी गर्दन पर रहे बार-ए-अलम मेरा

लिखा ये दावर-ए-महशर ने मेरी फ़र्द-ए-इसयाँ पर

ये वो बंदा है जिस पर नाज़ करता है करम मेरा

कहा ग़ुंचा ने हँस कर वाह क्या नैरंग-ए-आलम है

वजूद गुल जिसे समझे हैं सब है वो अदम मेरा

कशाकश है उम्मीद-ओ-यास की ये ज़िंदगी क्या है

इलाही ऐसी हस्ती से तो अच्छा था अदम मेरा

दिल-ए-अहबाब में घर है शगुफ़्ता रहती है ख़ातिर

यही जन्नत है मेरी और यही बाग़-ए-इरम मेरा

मुझे अहबाब की पुर्सिश की ग़ैरत मार डालेगी

क़यामत है अगर इफ़शा हुआ राज़-ए-अलम मेरा

खड़ी थीं रास्ता रोके हुए लाखों तमन्नाएँ

शहीद-ए-यास हूँ निकला है किस मुश्किल से दम मेरा

ख़ुदा ने इल्म बख़्शा है अदब अहबाब करते हैं

यही दौलत है मेरी और यही जाह-ओ-हशम मेरा

ज़बान-ए-हाल से ये लखनऊ की ख़ाक कहती है

मिटाया गर्दिश-ए-अफ़्लाक ने जाह-ओ-हशम मेरा

किया है फ़ाश पर्दा कुफ़्र-ओ-दीं का इस क़दर मैं ने

कि दुश्मन है बरहमन और अदू शैख़-ए-हरम मेरा

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