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दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे

दिल किए तस्ख़ीर बख़्शा फ़ैज़-ए-रूहानी मुझे

हुब्ब-ए-क़ौमी हो गया नक़्श-ए-सुलैमानी मुझे

मंज़िल-ए-इबरत है दुनिया अहल-ए-दुनिया शाद हैं

ऐसी दिल-जमई से होती है परेशानी मुझे

जाँचता हूँ वुसअत-ए-दिल हमला-ए-ग़म के लिए

इम्तिहाँ है रंज-ओ-हिरमाँ की फ़रावानी मुझे

हक़-परस्ती की जो मैं ने बुत-परस्ती छोड़ कर

बरहमन कहने लगे इल्हाद का बानी मुझे

कुल्फ़त-ए-दुनिया मिटे भी तो सख़ी के फ़ैज़ से

हाथ धोने को मिले बहता हुआ पानी मुझे

ख़ुद-परस्ती मिट गई क़द्र-ए-मोहब्बत बढ़ गई

मातम-ए-अहबाब है तालीम-ए-रूहानी मुझे

क़ौम का ग़म मोल ले कर दिल का ये आलम हुआ

याद भी आती नहीं अपनी परेशानी मुझे

ज़र्रा ज़र्रा है मिरे कश्मीर का मेहमाँ-नवाज़

राह में पत्थर के टुकड़ों ने दिया पानी मुझे

लखनऊ में फिर हुई आरास्ता बज़्म-ए-सुख़न

बाद मुद्दत फिर हुआ ज़ौक़-ए-ग़ज़ल-ख़्वानी मुझे

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