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दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना

दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना

आदमियत है यही और यही इंसाँ होना

ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब

मौत क्या है इन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना

हम को मंज़ूर है ऐ दीदा-ए-वहदत-आगीं

एक ग़ुंचे में तमाशा-ए-गुलिस्ताँ होना

जिस तरह ख़ुम किसी जाम का टुकड़ा निकले

यूँही गर्दूं से मह-ए-नौ का नुमायाँ होना

सर में सौदा न रहा पाँव बेड़ी न रही

मेरी तक़दीर में था बे-सर-ओ-सामाँ होना

सफ़्हा-ए-दहर में मोहर-ए-यद-ए-क़ुदरत समझो

फूल का ख़ाक के तूदे से नुमायाँ होना

हो बयाज़-ए-सहर-ए-नूर पे दिल क्या माइल

याद है दफ़्तर-ए-अंजुम का परेशाँ होना

कल भी वो कल जो है फ़र्दा-ए-क़यामत ज़ाहिद

और फिर उस के लिए आज परेशाँ होना

पाँव ज़ंजीर के मुश्ताक़ हैं ऐ जोश-ए-जुनूँ

है मगर शर्त तिरा सिलसिला-जुम्बाँ होना

गुल को पामाल न कर लाल-ओ-गुहर के मालिक

है उसे तुर्रा-ए-दस्तार-ए-ग़रीबाँ होना

है मिरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़ कर

नंग है मेरे लिए चाक गरेबाँ होना

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