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अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता - चकबस्त ब्रिज नारायण कविता - Darsaal

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता

न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता

बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता

जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता

मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता

न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता

हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर

अगर उन में से कोई बा-वफ़ा होता तो क्या होता

रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी

क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता

ख़ुदा को भूल कर इंसान के दिल का ये आलम है

ये आईना अगर सूरत-नुमा होता तो क्या होता

अगर दम भर भी मिट जाती ख़लिश ख़ार-ए-तमन्ना की

दिल-ए-हसरत-तलब को अपनी हस्ती से गिला होता

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