सवाद-ए-शाम से डरता हुआ नज़र आया

सवाद-ए-शाम से डरता हुआ नज़र आया

फ़रोग़-ए-मेहर भी मरता हुआ नज़र आया

नसीम-ए-सुब्ह चली और फ़िशार-ए-रंग-ओ-बू

कहीं क़रार न करता हुआ नज़र आया

ज़मीं पे राख उड़ी जब भी ख़ेमा-गाहों की

उफ़ुक़ पे ख़ून बिखरता हुआ नज़र आया

हर एक फूल दिखाई दिया कमान-ब-दस्त

हर एक ख़ार निखरता हुआ नज़र आया

न नींद आई न कोई सितारा-ए-कम-ख़्वाब

बुलंदियों से उतरता हुआ नज़र आया

कभी कभी तो मिरी जल्वा-गाह-ए-हैरत में

ख़ुद आइना भी सँवरता हुआ नज़र आया

चराग़ बुझने लगे और मेरी आँखों को

बदन में कोई उतरता हुआ नज़र आया

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