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कचरे का ढेर - बुशरा सईद कविता - Darsaal

कचरे का ढेर

काँधे पर क़द से लम्बी बोरी लटकाए

एक बच्चा

कचरे के उस ढेर की जानिब लपकता है

जहाँ से

नाक बंद कर के गुज़रना भी दुश्वार लगता है

शाम तक

ग़लाज़त के उस पहाड़ से

वो बदबू-दार

डब्बे बोतलें और बोसीदा काग़ज़ चुनेगा

दिन ढले

अपनी ख़्वारी की

सस्ती मज़दूरी जब पाएगा

घर जाते हुए वो

ख़ुशी का राग गाएगा

मगर

उस की नीली शफ़्फ़ाफ़ आँखों का

सियाह ख़्वाब

ताज़ा कचरे का ढेर

कोई नहीं सोचेगा

उस की दूधिया जिल्द की तह में

उतरती ज़हरीली मैल

कोई नहीं धोएगा

वो मा'सूम बच्चा

क्या हमें

कभी नज़र नहीं आएगा

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