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अगर औरत कमा सकती तो - बुशरा सईद कविता - Darsaal

अगर औरत कमा सकती तो

खरी बातों का ज़ाइक़ा तुर्श होता है

ब-हैसियत इंसान

औरत की ज़रूरत

किसी मर्द को नहीं

वो गिरवी रखी जाए

या बेच दी जाए

किराए पे ली जाए

या यक-मुश्त ख़रीद ली जाए

उस के ख़यालात की

बंदर-बाँट मुमकिन नहीं

हुक्म की पाबंदी का तौक़ पहन कर

जीवन की कुटिया का

किराया अदा करते हुए

अगर औरत कमा सकती तो

लाती मर्द के लिए ख़रीद कर

वो हौसला

कि जिस से वो अपना चेहरा

उस के ख़याल आईने में देख सकता

ना-ख़ुश तमाम बातों को

इंसाफ़ के पलड़े में तौल सकता

अदम-ए-तहफ़्फ़ुज़ के पिंजरे में

तीसरे दर्जे के क़ैदी की हैसियत से

अगर औरत कमा सकती तो

लाती मर्द के लिए ख़रीद कर

वो मोहब्बत

जो उस की फ़ितरी ज़रूरत से मावरा होती

अगर औरत कमा सकती तो

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