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आँखों को अब निगाह की आदत नहीं रही - बुशरा हाश्मी कविता - Darsaal

आँखों को अब निगाह की आदत नहीं रही

आँखों को अब निगाह की आदत नहीं रही

अब कुछ भी देखने की ज़रूरत नहीं रही

सच्चाइयों की राह बहुत हो गई कठिन

इस रास्ते पे चलने की हिम्मत नहीं रही

दुश्मन हो दोस्त हो कोई अपना कि ग़ैर हो

हम को तो अब किसी की भी हाजत नहीं रही

दुनिया अज़ीज़-तर रही इक अर्सा-ए-दराज़

लेकिन अब इस की भी तो मोहब्बत नहीं रही

अर्सा हुआ किसी ने पुकारा नहीं मुझे

शायद किसी को मेरी ज़रूरत नहीं रही

काँटा सा एक दिल में खटकता है मुस्तक़िल

पर दिल की बात कहने की आदत नहीं रही

सरमाया-ए-हयात हुआ चाहता है ख़त्म

जिस पर ग़ुरूर था वही दौलत नहीं रही

'बुशरा' कभी जो जाओ वहाँ अर्ज़-ए-हाल को

कहना कि हम पे अब वो इनायत नहीं रही

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