मैं जब ख़ुद से बिछड़ती हूँ
मिरी पलकों पे ताबिंदा
तिरी आँखों के आँसू
मुझे तारीक रातों में
नए रस्ते सुझाते हैं
वजूदी वाहिमों की सर-ज़मीनों पर
मैं जब ख़ुद से बिछड़ती हूँ
चमकती रेत के ज़र्रों की सूरत
जब बिखरती हूँ
मुझे वो अपने नम से जोड़ देते हैं
मुझे ख़ुद से मिलाते हैं
मैं जब दिन की बहुत लम्बी मसाफ़त में
उदासी की थकन से चूर होती हूँ
अकेले-पन की वहशत में
बहुत मजबूर होती हूँ
तो गहरी हाँफती शामों की दहलीज़ों से
वो अक्सर मुझे धीरे से
माँ! कह कर बुलाते हैं
तिरी आँखों के आँसू
मुझे कैसे अनोखे सिलसिलों से
जा मिलाते हैं!!
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