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मैं जब ख़ुद से बिछड़ती हूँ - बुशरा एजाज़ कविता - Darsaal

मैं जब ख़ुद से बिछड़ती हूँ

मिरी पलकों पे ताबिंदा

तिरी आँखों के आँसू

मुझे तारीक रातों में

नए रस्ते सुझाते हैं

वजूदी वाहिमों की सर-ज़मीनों पर

मैं जब ख़ुद से बिछड़ती हूँ

चमकती रेत के ज़र्रों की सूरत

जब बिखरती हूँ

मुझे वो अपने नम से जोड़ देते हैं

मुझे ख़ुद से मिलाते हैं

मैं जब दिन की बहुत लम्बी मसाफ़त में

उदासी की थकन से चूर होती हूँ

अकेले-पन की वहशत में

बहुत मजबूर होती हूँ

तो गहरी हाँफती शामों की दहलीज़ों से

वो अक्सर मुझे धीरे से

माँ! कह कर बुलाते हैं

तिरी आँखों के आँसू

मुझे कैसे अनोखे सिलसिलों से

जा मिलाते हैं!!

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