संग को छोड़ के तू ने कभी सोचा ही नहीं
संग को छोड़ के तू ने कभी सोचा ही नहीं
अपनी हस्ती में ख़ुदा को कभी ढूँडा ही नहीं
उलझा उलझा सा है क्यूँ अपने भरम में हर-दम
तू ने ख़ुद अपने गरेबान में झाँका ही नहीं
तेरे होने से करम उस का नज़र आता है
तुझ से बढ़ कर कोई शाहिद वो दिखाता ही नहीं
उस के बंदों में उसे ढूँढ अगर है ख़्वाहिश
वो सनम-ख़ानों के दर पर कभी दिखता ही नहीं
लम्हा लम्हा वो समाया है रग-ओ-पै में 'सबा'
हद से आगे कभी एहसास ने छोड़ा ही नहीं
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