बे-क़रारी दिल-ए-मुज़्तर की बढ़ाई हम ने
बे-क़रारी दिल-ए-मुज़्तर की बढ़ाई हम ने
आज फिर तुम से कोई आस लगाई हम ने
मुश्किलें राह-ए-वफ़ा में भी बनाईं आसाँ
रस्म-ए-उल्फ़त तो ब-हर-तौर निभाई हम ने
शायद आ जाओ किसी रोज़ कभी लौट के तुम
बस उसी आस में हर राह सजाई हम ने
तुम कभी थे न हमारे न कभी होगे सनम
ये समझने में बहुत देर लगाई हम ने
हाए दिलकश वो अदाएँ दिल-आवेज़ नज़र
जिन में उलझे रहे और उम्र गँवाई हम ने
कोई शिकवा न शिकायत न गिला है तुम से
अपने ही हाथ से हस्ती भी मिटाई हम ने
रहने वाले हैं 'सबा' अर्श-ए-बरीं के वो तो
कहकशाँ फिर भी सर-ए-फ़र्श बिछाई हम ने
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