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पूछते हैं बज़्म में सुन कर वो अफ़्साना मिरा - ब्रहमा नन्द जलीस कविता - Darsaal

पूछते हैं बज़्म में सुन कर वो अफ़्साना मिरा

पूछते हैं बज़्म में सुन कर वो अफ़्साना मिरा

आप हैं कहती है दुनिया जिस को दीवाना मिरा

बस यही है मुख़्तसर तशरीह हुस्न-ओ-इश्क़ की

वो तुम्हारी दास्ताँ है ये है अफ़्साना मिरा

हैं तसव्वुर में तिरे जल्वे तिरी रानाइयाँ

रौनक़-ए-सद-अंजुमन है आज वीराना मिरा

ख़ुद मिरे आँसू ही उस के हक़ में शो'ले बन गए

बर्क़-ओ-बाराँ से तो था महफ़ूज़ काशाना मिरा

खिल रहा है मेरे चेहरे से मिरा अहवाल-ए-ग़म

कह रही है मेरी ख़ामोशी ही अफ़्साना मिरा

मैं नहीं क़ाइल किसी तक़लीद का ऐ रहबरो

हर क़दम उठता है मंज़िल में हरीफ़ाना मिरा

मौजज़न है ख़ून-ए-दिल अब चश्म-ए-तर में ऐ 'जलीस'

बादा-ए-गुल-गूँ से है लबरेज़ पैमाना मिरा

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