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मसर्रत को मसर्रत ग़म को जो बस ग़म समझते हैं - ब्रहमा नन्द जलीस कविता - Darsaal

मसर्रत को मसर्रत ग़म को जो बस ग़म समझते हैं

मसर्रत को मसर्रत ग़म को जो बस ग़म समझते हैं

वो नादाँ ज़िंदगी का राज़ अक्सर कम समझते हैं

हक़ीक़त में वही राज़-ए-हक़ीक़त से हैं ना-वाक़िफ़

जिन्हें दावा है ये राज़-ए-हक़ीक़त हम समझते हैं

नहीं हाजत हमें ऐ चारासाज़ो चारा-साज़ी की

हम अपने दर्द ही को दर्द का मरहम समझते हैं

हमारी सादा-लौही उस से बढ़ कर और क्या होगी

कि हम ना-आश्ना को आश्ना-ए-ग़म समझते हैं

ये कैसा राज़ है उन के हमारे दरमियाँ यारब

न जिस को वो समझते हैं न जिस को हम समझते हैं

मैं उन के रंज के क़ुर्बां मैं उन के दर्द के सदक़े

जो हर इंसान के ग़म को ख़ुद अपना ग़म समझते हैं

समझते हैं 'जलीस' अब आप तो आलम को बेगाना

मगर हम आप को बेगाना-ए-आलम समझते हैं

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