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दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था - ब्रहमा नन्द जलीस कविता - Darsaal

दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था

दास्तान-ए-शमअ' थी या क़िस्सा-ए-परवाना था

अंजुमन में इश्क़ ही उन्वान हर अफ़्साना था

जुस्तजू-ए-दैर-ओ-का'बा से हुआ ज़ाहिर यही

मैं हक़ीक़त में ख़ुद अपनी ज़ात से बेगाना था

मेरी हस्ती थी ब-ज़ात-ए-ख़ुद मुकम्मल मय-कदा

मैं कभी शीशा कभी साग़र कभी पैमाना था

हाए वो अय्याम-ए-तिफ़्ली हाए वो अहद-ए-शबाब

ख़्वाब था जो कुछ कि देखा जो सुना अफ़्साना था

बद-गुमानी से हुआ अपने पराए का गुमाँ

वर्ना अपना था न दुनिया में कोई बेगाना था

चश्म-ए-बीना ही न थी तेरी वगरना ऐ कलीम

ज़र्रे ज़र्रे में ज़ुहूर-ए-जल्वा-ए-जानाना था

महफ़िल-ए-हस्ती में देखा है यही हम ने 'जलीस'

जिस को जितना होश था उतना ही वो दीवाना था

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