ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
मंज़िल का निशाँ भी उसी पत्थर से मिला है
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दो दिन में हो गया है ये आलम कि जिस तरह
कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत
ज़माना-साज़ियों से मैं हमेशा दूर रहता हैं
काबे में मुसलमान को कह देते हैं काफ़िर
दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
अब इश्क़ रहा न वो जुनूँ है
सुकूँ नसीब हुआ हो कभी जो तेरे बग़ैर
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
बैठा नहीं हूँ साया-ए-दीवार देख कर
किसी के सितम इस क़दर याद आए
वही होती है रहबर जो तमन्ना दिल में होती है