दोहराई जा सकेगी न अब दास्तान-ए-इश्क़
कुछ वो कहीं से भूल गए हैं कहीं से हम
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कब से उलझ रहे हैं दम-ए-वापसीं से हम
कौन समझे इश्क़ की दुश्वारियाँ
ठोकर किसी पत्थर से अगर खाई है मैं ने
फ़राहम जिस क़दर इशरत के सामाँ होते जाते हैं
रो रहा हूँ आज मैं सारे जहाँ के सामने
ना-उमीदी है बुरी चीज़ मगर
मोहब्बत में ख़ुदा जाने हुईं रुस्वाइयाँ किस से
इश्क़ जो ना-गहाँ नहीं होता
सर जिस पे न झुक जाए उसे दर नहीं कहते
किया तबाह तो दिल्ली ने भी बहुत 'बिस्मिल'
इश्क़ भी है किस क़दर बर-ख़ुद-ग़लत