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सहर हुई तो ख़यालों ने मुझ को घेर लिया - बिस्मिल साबरी कविता - Darsaal

सहर हुई तो ख़यालों ने मुझ को घेर लिया

सहर हुई तो ख़यालों ने मुझ को घेर लिया

जब आई शब तिरे ख़्वाबों ने मुझ को घेर लिया

मिरे लबों पे अभी नाम था बहारों का

हुजूम-ए-शौक़ में ख़ारों ने मुझ को घेर लिया

कभी जुनूँ के ज़माने कभी फ़िराक़-रुतें

कहाँ कहाँ तिरी यादों ने मुझ को घेर लिया

निकल के आ तो गया गहरे पानियों से मगर

कई तरह के सराबों ने मुझ को घेर लिया

ये जी में था कि निकल जाऊँ तुझ से दूर कहीं

कि तेरे ध्यान की बाँहों ने मुझ को घेर लिया

जब आया ईद का दिन घर में बेबसी की तरह

तो मेरे फूल से बच्चों ने मुझ को घेर लिया

हुजूम-ए-रंज से कैसे निकल सके 'बिस्मिल'

तिरी तलाश के रिश्तों ने मुझ को घेर लिया

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