हैराँ हूँ कि अब लाऊँ कहाँ से मैं ज़बाँ और
हैराँ हूँ कि अब लाऊँ कहाँ से मैं ज़बाँ और
लब कहते हैं कुछ और उन्हें होता है गुमाँ और
जाएँ तो कहाँ जाएँ मोहब्बत के ख़रीदार
अरबाब-ए-सियासत ने तो खोली है दुकाँ और
मालूम नहीं है मिरे सय्याद को शायद
घुटती है अगर साँस तो खुलती है ज़बाँ और
अब वादा-ए-फ़र्दा में कशिश कुछ नहीं बाक़ी
दोहराई हुई बात गुज़रती है गिराँ और
देखेगी जो इक पल में मिरी आँख से तुझ को
हो जाएगी दुनिया तिरी जानिब निगराँ और
लग जाती हैं मोहरें सी लबों पर उन्हें मिल कर
होता है मगर दिल के धड़कने का समाँ और
खुलती हैं नहीं हश्र के दिन भी मिरी आँखें
शायद कि मुक़द्दर में है इक ख़्वाब-ए-गिराँ और
हम राख हुए उस पे मगर आँच न आई
जलने का समाँ और जलाने का समाँ और
गो अर्ज़-ओ-तलब एक हसीं शग़्ल है लेकिन
इस खेल में बढ़ जाता है अंदेशा-ए-जाँ और
मेराज-ए-तकल्लुम है ख़मोशी मिरी 'बिस्मिल'
आती ही नहीं कोई मुझे तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ और
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