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सारी उम्मीद रही जाती है - बिस्मिल अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

सारी उम्मीद रही जाती है

सारी उम्मीद रही जाती है

हाए फिर सुब्ह हुई जाती है

नींद आती है न वो आते हैं

रात गुज़री ही चली जाती है

मजमा-ए-हश्र में रूदाद-ए-शबाब

वो सुने भी तो कही जाती है

दास्ताँ पूरी न होने पाई

ज़िंदगी ख़त्म हुई जाती है

वो न आए हैं तो बेचैन है रूह

अभी आती है अभी जाती है

ज़िंदगी आप के दीवाने की

किसी सूरत से कटी जाती है

ग़म में परवानों के इक मुद्दत से

शम्अ घुलती ही चली जाती है

आप महफ़िल से चले जाते हैं

दास्ताँ बाक़ी रही जाती है

हम तो 'बिस्मिल' ही रहे ख़ैर हुई

इश्क़ में जान चली जाती है

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