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चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने - बिस्मिल अज़ीमाबादी कविता - Darsaal

चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने

चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने

चमन रहा न रहे वो चमन के अफ़्साने

सुना नहीं हमें उजड़े चमन के अफ़्साने

ये रंग हो तो सनक जाएँ क्यूँ न दीवाने

छलक रहे हैं सुराही के साथ पैमाने

बुला रहा है हरम, टोकते हैं बुत-ख़ाने

खिसक भी जाएगी बोतल तो पकड़े जाएँगे रिंद

जनाब-ए-शैख़ लगे आप क्यूँ क़सम खाने

ख़िज़ाँ में अहल-ए-नशेमन का हाल तो देखा

क़फ़स नसीब पे क्या गुज़री है ख़ुदा जाने

हुजूम-ए-हश्र में अपने गुनाहगारों को

तिरे सिवा कोई ऐसा नहीं जो पहचाने

नक़ाब रुख़ से न सरकी थी कल तलक जिन की

सभा में आज वो आए हैं नाचने-गाने

किसी की मस्त-ख़िरामी से शैख़ नालाँ हैं

क़दम क़दम पे बने जा रहे हैं मय-ख़ाने

ये इंक़लाब नहीं है तो और क्या 'बिस्मिल'

नज़र बदलने लगे अपने जाने-पहचाने

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