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उन से कह दो कि इलाज-ए-दिल-ए-शैदा न करें - बिस्मिल इलाहाबादी कविता - Darsaal

उन से कह दो कि इलाज-ए-दिल-ए-शैदा न करें

उन से कह दो कि इलाज-ए-दिल-ए-शैदा न करें

यही अच्छा है कि बीमार को अच्छा न करें

क्या कहा फिर तो कहो हम कोई शिकवा न करें

चुप रहें ज़ुल्म सहें ज़ुल्म का चर्चा न करें

ये तमाशा तो करें रुख़ से उठा दें वो नक़ाब

एक आलम को मगर महव-ए-तमाशा न करें

वक़्त-ए-आख़िर तो निकल जाए तमन्ना मेरी

वो न ऐसे में भी आएँ कहीं ऐसा न करें

इंतिहा हो गई आज़ाद-दही की सय्याद

हम तसव्वुर में भी गुलज़ार को देखा न करें

रोज़ वो कहते हैं आज आएँगे कल आएँगे

ऐसे वा'दे से तो बेहतर है कि वादा न करें

ख़ुद-नुमाई उन्हें ग़ैरों में लिए फिरती है

हम तो जब जानें कि हम से भी वो पर्दा न करें

तेग़ रुक जाती है नावक भी बहक जाता है

कोई 'बिस्मिल' को ये समझा दे कि तड़पा न करें

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