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साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है - बिस्मिल इलाहाबादी कविता - Darsaal

साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है

साज़-ए-हस्ती का अजब जोश नज़र आता है

इक ज़माना हमा-तन-गोश नज़र आता है

हसरत-ए-जल्वा-ए-दीदार हो पूरी क्यूँकर

वो तसव्वुर में भी रू-पोश नज़र आता है

देखते जाओ ज़रा शहर-ए-ख़मोशाँ का समाँ

कि ज़माना यहाँ ख़ामोश नज़र आता है

आप के नश्तर-ए-मिज़्गाँ को चुभो लेता हूँ

ख़ून-ए-दिल में जो कभी जोश नज़र आता है

आप ही सिर्फ़ जफ़ा-कोश नज़र आते हैं

सारा आलम तो वफ़ा-कोश नज़र आता है

मौसम-ए-गुल न रहा दिल न रहा जी न रहा

फिर भी वहशत का वही जोश नज़र आता है

शाना-ए-यार पे बिखरी तो नहीं ज़ुल्फ़-ए-दराज़

हर कोई ख़ानुमाँ बर-दोश नज़र आता है

जल्वा-ए-क़ुदरत-ए-बारी का मुअम्मा न खुला

रू-ब-रू रह के भी रू-पोश नज़र आता है

फिर ज़रा ख़ंजर-ए-क़ातिल को ख़बर दे कोई

ख़ून-ए-'बिस्मिल' में वही जोश नज़र आता है

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