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मिल चुका महफ़िल में अब लुत्फ़-ए-शकेबाई मुझे - बिस्मिल इलाहाबादी कविता - Darsaal

मिल चुका महफ़िल में अब लुत्फ़-ए-शकेबाई मुझे

मिल चुका महफ़िल में अब लुत्फ़-ए-शकेबाई मुझे

खींचती है अपनी जानिब तेरी अंगड़ाई मुझे

बा'द मरने के जो हासिल होगी रुस्वाई मुझे

ज़िंदगी क्या सोच कर दुनिया में तू लाई मुझे

इश्क़ में यूँ हुस्न की सूरत नज़र आई मुझे

वो तमाशा बन गए कह कर तमाशाई मुझे

ख़ुद पुकार उठता जुनूँ तकमील-ए-वहशत हो गई

वो समझ लेते जो दिल में अपना सौदाई मुझे

हो गया कोहराम बरपा ख़ाना-ए-सय्याद में

बैठे बैठे आशियाँ की याद जब आई मुझे

कल था मैं का'बे में मौजूद आज बुत-ख़ाने में हूँ

चैन देता ही नहीं शौक़ जबीं-साई मुझे

आइना भी था कोई क्या ज़िंदगी का आइना

देखने पर मौत की सूरत नज़र आई मुझे

ज़िंदगी की कश्मकश से दस्त-कश होना पड़ा

नज़्अ' में याद आ गई जब उन की अंगड़ाई मुझे

खुल गई चश्म-ए-बसीरत ख़ाक में मिलने के बा'द

दिल के हर ज़र्रे में इक दुनिया नज़र आई मुझे

हज़रत-ए-'बिस्मिल' ये अच्छी दिल को सूझी दिल-लगी

कर दिया शमशीर-ए-क़ातिल का तमन्नाई मुझे

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