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क्या रौशनी-ए-हुस्न-ए-सबीह अंजुमन में है - बिशन नरायण दराबर कविता - Darsaal

क्या रौशनी-ए-हुस्न-ए-सबीह अंजुमन में है

क्या रौशनी-ए-हुस्न-ए-सबीह अंजुमन में है

फ़ानूस में है शम्अ कि तन पैरहन में है

भड़काती है जुनूँ को गुल-ओ-लाला की बहार

इक आग सी लगी हुई सारे चमन में है

पुर्ज़े समझ के जामा-ए-तन के उड़ा जुनूँ

वो जामा-ज़ेब भी तो उसी पैरहन में है

सूखे शजर हरे जो हुए फिर तो क्या हुआ

नासूर-ए-नौ हमारे भी ज़ख़्म-ए-कुहन में है

बज़्म-ए-ख़याल-ए-यार में ग़ैरों का क्या गुज़र

ख़ल्वत जो चाहिए वो उसी अंजुमन में है

तक़दीर-ए-रेग-ए-शीशा-ए-साअत मिली मुझे

कुल्फ़त सफ़र की रात दिन अपने वतन में है

बुलबुल की ख़ुश-नवाई का बाइस है इश्क़-ए-गुल

दिल में जो दर्द है तो मज़ा भी सुख़न में है

रंग-ए-ख़िज़ाँ भी जिस का है रश्क-ए-बहार-ए-अब्र

वो किश्त ज़ाफ़राँ की हमारे वतन में है

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