जिन पर निसार शम्स-ओ-क़मर आसमाँ के हैं
जिन पर निसार शम्स-ओ-क़मर आसमाँ के हैं
दो ज़र्रे ख़ाक-ए-किश्वर-ए-हिन्दोस्ताँ के हैं
कोहसार फ़स्ल-ए-गुल में परिस्ताँ से कम नहीं
क्या क्या तिलिस्म सब्ज़ा-ए-आब-ए-रवाँ के हैं
अख़्लाक़ वज़्अ' तर्ज़ रविश सब में इंक़लाब
अब रंग-ढंग और ही पीर-ओ-जवाँ के हैं
है अक़्ल दंग सफ़हा-ए-अव्वल में आज तक
कहने को गरचे सात वरक़ आसमाँ के हैं
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