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यौम-ए-बर्क़ - बिर्ज लाल रअना कविता - Darsaal

यौम-ए-बर्क़

तिरी रौशन-दिमाग़ी पर हैं नाज़ाँ आसमाँ वाले

तिरी नाज़ुक-ख़याली पर हैं हैराँ गुल्सिताँ वाले

तिरी अज़्मत के क़ाइल दिल से हैं सारे-जहाँ वाले

सुख़न-दानों की महफ़िल में तू शम-ए-हुस्न-ए-महफ़िल है

सितारों में ज़िया-अफ़रोज़ मिस्ल-ए-माह-ए-कामिल है

समझते हैं तुझे सालार अपना कारवाँ वाले

कहीं अल्फ़ाज़ में हुस्न-ए-हक़ीक़ी की हैं तस्वीरें

कहीं अशआ'र में रम्ज़-ए-मोहब्बत की हैं तफ़्सीरें

तिरे दीवाँ को जाम-ए-जम समझते हैं जहाँ वाले

कहीं आँसू कहीं नग़्मे कहीं जल्वे जवानी के

तिरे अशआ'र आईने हैं हाल-ए-ज़िंदगानी के

कि जिन में अपनी सूरत देख लेते हैं जहाँ वाले

कहीं हुब्ब-ए-वतन की आग लफ़्ज़ों में भरी देखी

कहीं मंज़र-निगारी की हसीं जादूगरी देखी

वो तश्बीहें हैं जिन पर नाज़ करते हैं ज़बाँ वाले

जहाँ तू ने ज़रा बर्क़-ए-जमाल-ए-शे'र चमकाई

वहीं इक ज़िंदगी की लहर सी दौड़ी नज़र आई

तिरी शो'ला-नवाई पर हैं चुप शबनम-सिताँ वाले

तिरे अशआ'र ने रंग-ए-क़ुबूल-ए-आम पाया है

जहाँ में तू ने अपनी शेरियत से नाम पाया है

हमेशा याद रक्खेंगे तुझे हिन्दोस्ताँ वाले

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