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ज़ब्त-ए-नाला दिल-ए-फ़िगार न कर - बिर्ज लाल रअना कविता - Darsaal

ज़ब्त-ए-नाला दिल-ए-फ़िगार न कर

ज़ब्त-ए-नाला दिल-ए-फ़िगार न कर

आग को और शो'ला-बार न कर

शब-ए-ग़म दाग़-ए-दिल की शम्अ' जला

चाँद-तारों का इंतिज़ार न कर

शौक़ से फूल चुन चमन में मगर

ख़ार-ओ-ख़स को ज़लील-ओ-ख़्वार न कर

माह-ओ-अंजुम पे डाल बढ़ के कमंद

पस्त ज़र्रों पर अपना वार ना कर

गामज़न हो जो शौक़-ए-मंज़िल है

राह के पेच-ओ-ख़म शुमार न कर

और पैदा कर अपने ख़ून से फूल

रात-दिन मातम-ए-बहार न कर

सुब्ह का साज़ भी तो छेड़ ज़रा

शाम का ज़िक्र बार बार न कर

सर-निगूँ हो न मौत के आगे

ज़िंदगानी को शर्मसार न कर

कुछ मिज़ाज-ए-गुल-ओ-समन भी समझ

सिर्फ़ नज़्ज़ारा-ए-बहार न कर

आग से खेलना नहीं अच्छा

भूल कर भी किसी को प्यार न कर

दूसरों का तो ज़िक्र इश्क़ में क्या

अपने दिल पर भी ए'तिबार न कर

ख़ार को भी नज़र में रख 'रा'ना'

गुल से अंदाज़ा-ए-बहार न कर

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