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मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है - बिर्ज लाल रअना कविता - Darsaal

मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है

मोहब्बत नग़्मा भी है साज़ भी है

शिकस्त-ए-साज़ की आवाज़ भी है

है निय्यत ही में दोज़ख़ और जन्नत

यही दम-सोज़ भी दम-साज़ भी है

न तोड़ें मेरा साज़-ए-दिल न तोड़ें

कि इस में आप की आवाज़ भी है

मोहब्बत यूँ तो है इक लफ़्ज़-ए-सादा

जो समझो तो फ़साना-साज़ भी है

क़फ़स परवाज़-ए-दुश्मन तो है लेकिन

क़फ़स इक दावत-ए-परवाज़ भी है

यही गुल है जो तस्वीर-ए-ख़मोशी

शिकस्त-ए-ग़ुंचा की आवाज़ भी है

नहीं ज़ंजीर-ए-पा ही ये तसव्वुर

जो बंध जाए पर-ए-पर्वाज़ भी है

मैं तेरा राज़ खोलूँ भी तो क्यूँ कर

कि तेरा राज़ मेरा राज़ भी है

ये दुनिया है जो ख़्वाब-ए-नाज़ 'रा'ना'

यही ता'बीर-ए-ख़्वाब-ए-नाज़ भी है

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