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पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था - बिमल कृष्ण अश्क कविता - Darsaal

पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था

पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था

जिस को हम पत्थर समझे थे चश्मे जैसा फूट बहा था

अब तो आँखें पाप-भरी हैं एक समय यारो ऐसा था

अगले घर की छत के पीछे चाँद बहुत प्यारा लगता था

नंग-धड़ंग इक नन्हा-मुन्ना पीछे पीछे दौड़ रहा था

आगे उड़ने वाले वक़्त ने पल-भर को मुड़ कर देखा था

फूलों वाले तरकश के इक तीर ने मेरी आँखें ले लीं

और जिस ने चिल्ला खींचा था वो भी इक अंधा लड़का था

घर से निकलो धूप में बैठो देखो उस पीपल का साया

जिस के नीचे तुम ऐसा इक भोला बच्चा खेल रहा था

जो पागल औरत परसों तक इक गुड़िया नोचा करती थी

कल उस की झिलमिल चुनरी में एक मटियाला गुड्डा सा था

यूँ तो हरी-भरी राहों में रोज़ नया मेला लगता है

जब मैं घर से निकला या तो मैं था या मिरा साया था

मैं समझा था मेरे सर और ज़ख़्म की निस्बत पुर-मा'नी है

और कोई था जिस की ख़ातिर बच्चों ने पत्थर फेंका था

'अश्क' इक मुद्दत तक गुम-सुम से पेड़ ने रिम-झिम बरखा झेली

आग लगी तो चिंगारी के चारों-ओर धुआँ फैला था

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