उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
कि जिस के घर का दरवाज़ा नहीं है
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बदन के लोच तक आज़ाद है वो
इतना अच्छा न अगर होता तो हम सा होता
अब तक तो यही पता नहीं है
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था
जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
एआद-ए-हिकायतें