सभी इंसाँ फ़रिश्ते हो गए हैं
किसी दीवार में साया नहीं है
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Habib Jalib
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Gulzar
Allama Iqbal
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
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बदन के लोच तक आज़ाद है वो
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था
उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
ऐसा हुआ कि घर से न निकला तमाम दिन
मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
ऐसे में रोज़ रोज़ कोई ढूँडता मुझे
एआद-ए-हिकायतें
पड़ने लगे जो ज़ोर हवस का तो क्या निगाह