पड़ने लगे जो ज़ोर हवस का तो क्या निगाह
हर ज़ाविए से जिस्म निकलता दिखाए दे
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बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
तुझ जैसा इक आँचल चाहूँ अपने जैसा दामन ढूँडूँ
यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
तुम तो कुछ ऐसे भूल गए हो जैसे कभी वाक़िफ़ ही नहीं थे
प्यार है वो
उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
इतना अच्छा न अगर होता तो हम सा होता
बदन के लोच तक आज़ाद है वो
अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
एआद-ए-हिकायतें