मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
पुकारती फिरी बाज़ार में हवा मुझ को
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जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर
नज़्म
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
वो: एक
दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
अब तक तो यही पता नहीं है
जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
नाम उस का