एक दुनिया ने तुझे देखा है लेकिन मैं ने
जैसे देखा है तुझे वैसे न देखा होता
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यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
प्यार है वो
बदन के लोच तक आज़ाद है वो
एआद-ए-हिकायतें
उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
जिस्म में ख़्वाहिश न थी एहसास में काँटा न था
जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
रोने वालों ने तिरे ग़म को सराहा ही नहीं
अब तक तो यही पता नहीं है
मैं बंद कमरे की मजबूरियों में लेटा रहा
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर