दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
ख़ुद से निकलूँ तो किसी और का रस्ता देखूँ
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प्यार है वो
चाँद को रेशमी बादल से उलझता देखूँ
उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर
नाम उस का
यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
वो: एक
पतझड़ का मौसम था लेकिन शाख़ पे तन्हा फूल खिला था
कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
रोने वालों ने तिरे ग़म को सराहा ही नहीं