बदन ढाँपे हुए फिरता हूँ यानी
हवस के नाम पर धागा नहीं है
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उन की गोद में सर रख कर जब आँसू आँसू रोया था
कैसे कहें कि चार तरफ़ दायरा न था
उसे छत पर खड़े देखा था मैं ने
नज़्म
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
ऐसे में रोज़ रोज़ कोई ढूँडता मुझे
अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
अब यही दुख है हमीं में थी कमी उस में न थी
दायरा खींच के बैठा हूँ बड़ी मुद्दत से
हम से भली चाल चली चाँदनी
एआद-ए-हिकायतें
दुखती है रूह पाँव को लाचार देख कर